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आज मैं यह किताब मजबूरीबस भारतीय कानून व्यवस्था के मद्देनजर लिख रहा हॅूं, क्योंकि भारत देश में कानून तो बना है, पर कभी कभी यह समझ में नहीं आता है कि यह कानून किसके लिए बना है क्योंकि अमीर आदमी के लिए कोई कानून बना ही नहीं है और गरीब आदमी भारतीय कानून में पिसता चला जा रहा है तथा कानून का उपयोग लोग अपने तरीके से करते है । अमीर आदमी अपने ढंग से कानून का इस्तेमाल करता है तथा गरीब आदमी न्याय पाने के फेर में न्यायालय की चौखट में अपना दम तोड़ देता है तथा उसकी कई पीढ़िया इस इंतजार में गुजर जाती है कि कभी तो इन्साफ होगा और इस कहावत में विश्वास किए रहता है कि "सत्य परेशान हो सकता है लेकिन कभी पराजित नहीं हो सकता’’ । जबकि होता इसके विपरीत है । सत्यवादी ही परेशान होता है और हार भी जाता है इसमें कोई दो राय नहीं है तथा भारतीय न्यायालयों में हर जगह आपको "सत्यमेव जयते" लिखा मिल जाएगा । इसी बात के चलते हुए आपके समक्ष मशहूर कवि श्री कैलाश गौतम जी कि उस कविता ("मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना") का उल्लेख कर रहा हॅूं जो कि भारतीय कानून व्यवस्था की सच्चाई से रूबरू कराती है तथा इस बात का एहसास कराती है कि यह कविता भारतीय कानून व्यस्था के बारे में शत फीसदी खरी उतरी है ।
लेखक, सुखेन्द्र कुमार पाण्ड़ेय, एक अधिवक्ता के रूप में सिविल न्यायालय सतना में वकालत करते हैं। उन्होंने ये पुस्तक खुद के और दूसरों के अनुभव को देखकर लिखा है।