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वृद्धावस्था बचपन का अक्स होता है और बचपन हमारे समस्त जीवन की नींव । पुरानी कहावत भी है कि बचपन और बुढ़ापा एक समान होता है, कभी तो बुज़ुर्गों को बच्चों की समझदारी भाती है तो कभी उनसे सुरक्षा चाहिये, कभी वे उनसे आधुनिकता का पाठ सीखते हैं और कभी चॉकलेट, आइसक्रीम की ज़िद करते हैं । मगर साथ ही अभिभावक अपने अनुभवों की खाद पानी से बच्चों को सींचना चाहते हैं । उनकी यही सोच विस्तार पाती है कि उनके बच्चे सुशिक्षित हों, किताबी ज्ञान के साथ- साथ उन्हें मानवीय मूल्यों की शिक्षा मिले और वे समाज को एक नये नज़रिए से देख पाएँ । ‘अंतराल’ में लेखिका एक दस साल की बच्ची में परिवर्तित होकर अपने कस्बे की गलियों में विचरती है। जीवन के अनगिनत रंगों को आत्मसात करती हुई, खेलती हुई अपने सामाजिक परिवार को समेट कर हमसे बातें करती है! कभी रुला देती है कभी गुदगुदी कर हँसा देती है । अपने नन्हे से कद के अनुसार नन्हे- नन्हे विचारों के माध्यम से यह बताने का प्रयास करती है कि स्कूली पाठ्यक्रम में खोने का नाम ही बचपन नही है बल्कि चूहे बिल्ली की इस भाग दौड़ से परे एक बेफिक्र सी तसल्ली के साथ दौड़ना भी बचपन है ।
हिन्दी में स्नातक और संस्कृत में स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर चुकी लेखिका पूनम ‘पूर्णाश्री’ दुनिया की नज़रों में एक सामान्य स्त्री हैं । लेकिन ये बात कम लोग ही जानते हैं कि उनका गृहस्थ जीवन ही उनके लेखन का हमसफर है । सामान्य स्त्री जीवन पर आधारित कहानी संकलन संभवतः उनकी अगली रचना होगी । शहर की तेज़ रफ्तार से बेचैन होकर पूर्णाश्री जब जब प्रकृति के नज़दीक जाती हैं तो सुकून पाती हैं । पर्यावरण में हो रहे बदलाव उनको विचलित करते हैं अत: वह अपने लेखन के ज़रिये पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक असमानताओं जैसे मुद्दों को लोगों तक पहुंचाने के लिए सतत प्रयत्न करती हैं । ‘जल युक्त जीवन, प्रदूषण मुक्त भारत’ और ‘साफ सफाई मन को भाती, बीमारी से हमें बचाती’ जैसे स्लोगन कई अभियानों का हिस्सा बन चुके हैं । इनका एक कविता संग्रह ‘कविता कानन’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है और इनकी रचनायें निरन्तर अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं ।